Friday 18 September 2015

‘हिंदी वाली’ होने का दर्द

‘‘आज तुम हिंदी वालों का कोई प्रोग्राम है क्‍या?!’’, ‘‘ये हिंदी वालों ने हिंदी में काम-वाम करने का क्‍या सर्कुलर निकाला है?’’,ये कुछ ऐसे जुमले हैं जिनसे एक सरकारी महारत्‍न कंपनी के राजभाषा विभाग में काम करने के नाते मुझे आए दिन दो-चार होना पड़ता है। जैसे ही किसी के मुंह से तुम हिंदी वाले सुनती हूं, सबसे पहले मेरा दिमाग ये सोचकर घूम जाता है कि जिन महाशय या महाशया से मैं बात कर रही हूं, वे क्‍या किसी और देश से इम्‍पोर्ट हुए हैं (जैसा कि हिंदी भारत संघ की राजभाषा है) मगर अफ़सोस मैं जानती हूं कि ऐसा नहीं है-कोई भरतपुर से है तो कोई भटिंडा से, कोई दादरी से है तो कोई दरभंगा से।

यहां यह तर्क दिया जा सकता है कि मैं हिंदी वाले को गलत संदर्भ में समझ रही हूं, इसहिंदी में विभाग शब्‍द समाया है यानी इसका मतलब हुआ हिंदी विभाग वाले। जी हां,सहज बुद्धि तो यही कहती है पर अंग्रेज़ी में एक कहावत है न, ‘Face is the index of mind’, बस वही बात है। हिंदी के प्रति हीनता के जो भाव ऐसे अनेक (सब नहीं) सहकर्मियों के चेहरे से झलकते हैं, वही हिंदी वाले की व्‍याख्‍या को व्‍यापक बनाते हुए इसमें छिपे तंज की ओर इशारा करते हैं और यह बोलने वालों की खुद को हिंदी से अलग करने की हड़बड़ी को भी जताते हैं।

सवाल ये है कि जब हम हिंदी में बातचीत करते हैं, हिंदी फ़ि‍ल्‍में देखते हैंहिंदी गीत गुनगुनाते हैंहिंदी के अख़बार पढ़ते हैं, हिंदी में गप्‍प मारते हैं यानी अपनी निजी ज़ि‍न्‍दगी में नितांत हिंदीमय हैं तो फिर औपचारिक माहौल में अचानक अपने ऊपर अंग्रेज़ी का मुलम्‍मा कैसे और भला क्‍यों चढ़ा लेते हैं?

बीबीसी के अनुसार मैंडरिन, स्‍पेनिश, अंग्रेज़ी आदि के बाद हिंदी दुनिया में पांचवीं सबसे ज्‍यादा बोली जाने वाली भाषा है...क्‍योंअंग्रेज़ी अधिक बोली जाती है क्‍योंकि अंग्रेज़ी साम्राज्‍य सबसे बड़ा था और वह विभिन्‍न भाषाभाषियों के बीच संपर्क भाषा (lingua franca) का काम करती है, मैंडरिन जनसंख्‍या के लिहाज़ से सबसे बड़े देश चीन की भाषा होने के कारण खूब बोली जाती है, पर हिंदी अपनी वैज्ञानिकता और गुणग्राह्यता के लिए दुनियाभर में सम्‍मान पाती है। हिंदी ने जितने विदेशी शब्‍दों को जस-का-तस अपनाया है, उतना शायद ही किसी भाषा ने अपनाया हो। कागज़, बाज़ार, सज़ा, बर्फ़ (अरबी-फारसी), डायरी, टिकट,इंजन (अंग्रेज़ी), साबुन, संतरा, बाल्‍टी (पुर्तगाली), रिक्‍शा (जापानी), काजू (फ्रांसीसी), चाय, लीची (चीनी) जैसे शब्‍द हिंदी के संपर्क में आए और उसमें ऐसे जज़्ब हो गए कि अब हमारे लिए इन शब्‍दों के बिना हिंदी की कल्‍पना करना भी संभव नहीं। ज़रा बताएं कि जब आप चाकू बोलते हैं तो क्‍या आपको महसूस होता है कि आप कोई विदेशी शब्‍द बोल रहे हैं जबकि यह एक तुर्की शब्‍द है।

विदेशी जिस भाषा को सीखने में इतनी दिलचस्‍पी दिखाते हैं, जो भाषा विज्ञान और टेक्‍नोलॉजी के लिहाज़ से सबसे सक्षम मानी जाती है, आखिर हम भारतीय ही अपनी उस हिंदी को आत्‍महीनता से जोड़कर क्‍यों देखते हैं? यह हमारी अपरिपक्‍वता ही है कि हम अंग्रेज़ी ज्ञान को प्रतिभा से जोड़कर देखते हैं जबकि भाषा ज्ञान प्रतिभा नहीं जानकारी से जुड़ी चीज़ है।

हिंदी को हीन मानने की यह बीमारी संक्रामक है। घर में अगर बड़ों को लगी है तो बच्‍चों को तो सौ प्रतिशत अपनी गिरफ़्त में लेकर ही छोड़ती हैआखिर बच्‍चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम जो होती है। इस बीमारी की एक बानगी ये कि मेरे अधिकतर रिश्‍तेदारों के बच्‍चे प्राइवेट अंग्रेज़ी स्‍कूलों में पढ़ते हैं जिनमें से अधिकतर अपना सबसे पसंदीदा विषय अंग्रेज़ी और हिंदी को सबसे बोरिंग और बेकार विषय बताते हैं। यहां तक तो समझ आता है पर मैं चक्‍कर में तब पड़ जाती हूं जब वो अपने बेस्‍टेस्‍ट फ्रेंड के बारे में हिंदी में बखूबी बताते हैं। मतलब भाषा के मामले में भारतीय बच्‍चों की एक बड़ी जमात अपने स्‍कूली दिनों से ही दिग्भम्रित रहती है। फिर आगे उनसे अपनी भाषा से प्‍यार करने की उम्‍मीद कैसे पाली जाए?यहां सोचने वाली बात यह है कि क्‍या बेस्‍टेस्‍ट फ्रेंड के बारे में बताने वाले ये बच्‍चे अपना पाठ्यक्रम अंग्रेज़ी में समझ पाते होंगे यानी भाषा के साथ-साथ विषय-ज्ञान का भी घोर संकट!!! कहने की बात नहीं जहां नींव ही गलत पड़ी हो वहां इमारत के ध्‍वस्‍त होने के प्रति तो आश्‍वस्‍त रहा ही जा सकता है। 

लॉर्ड मैकाले ने एक दफ़ा कहा था, ''मैंने भारत के कोने-कोने में भ्रमण किया है। यहां मैंने ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं देखा जो किसी से भी कमतर पड़ता है। इस देश में मैंने इस तरह की समृद्धता, शिष्टता और लोगों में इतनी अधिक संभावना देखी है और मैं यह सोच भी नहीं सकता कि हम यहां राज कर पाएंगे जब तक कि इनकी रीढ़ की हड्डी को ही न तोड़ दें जो कि इस देश के अध्यात्म और संस्कृति में निहित है। अतः मैं प्रस्ताव रखता हूँ कि हम यहां के पुरातन शिक्षातंत्र और संस्कृति को ही बदल दें। यदि ये भारतीय सोचने लगे कि विदेशी और अंग्रेजी ही श्रेष्ठ है और हमारी संस्कृति से उच्चतर है तो वे अपना अत्मसम्मान, अपनी पहचान तथा अपनी संस्कृति को ही खो देंगे। और तब वे वह बन जाएंगे जो उन्हें वास्तविकता में बनाना चाहते हैं। सही अथों में एक गुलाम देश।'' यह हमारा दुर्भाग्‍य ही है कि उपरोक्‍त विचारों वाले और भारत में अंग्रेज़ी माध्‍यम की शिक्षण प्रणाली की शुरुआत करने वाले मैकाले की उसी शिक्षण व्‍यवस्‍था को हम आज तक खुशी-खुशी और सगर्व ढो रहे हैं। 

अगर आप हिंदी के ऊपर अपनी क्षेत्रीय भाषा को रखते हैं और गुजराती, मराठी या बंगाली में बोलना-लिखना पसंद करते हैं तो वो और बात है। तब आप भारतीय संस्‍कृति और भारतीयता की जड़ों को खाद-पानी ही देते हैं। और हां, अगर आप अंग्रेज़ी सीखते हैं और उसमें बोलते-लिखते हैं, तो भी कोई बुराई नहीं क्‍योंकि ज्ञान कैसा भी क्‍यों न हो, हमेशा मनुष्‍य को बेहतर ही बनाता है पर हिंदी को अंग्रेज़ी से कमतर मानना क्‍या हमारी आत्‍महीनता का परिचायक नहीं? क्‍या हम अंग्रेज़ों के वर्चस्‍व से आज़ाद होने के लिए खुद को तैयार ही नहीं कर पा रहे?

आखिर में अक़बर-बीरबल का एक रोचक किस्‍सा...एक बार अक़बर के दरबार में एक विद्वान् आया जिसे सैंकड़ों भाषाएं न सिर्फ़ आती थीं, बल्कि वो उनमें इतना पारंग‍त था कि उसकी मातृभाषा पहचानना तक मुश्किल था। उसने दरबारियों को चुनौती दी कि कोई उसकी मातृभाषा पहचानकर दिखाए। सभी दरबारी बगलें झांकने लगे। यहां तक कि अपनी प्रत्‍युत्‍पन्‍न‍मति (presence of mind) और हाज़ि‍रजवाबी के लिए मशहूर बीरबल भी चित्त। आखिर बीरबल ने कहा कि महामनाहम सब आपके भाषा-ज्ञान के प्रति नतमस्‍तक हैं। हमने आपका लोहा मान लिया। भाषाविद् गर्व भरी मुस्‍कान के साथ अभी अक़बर की ओर पलटा ही था कि बीरबल ने उसे टांग मार दी, वह हकबकाकर गिर पड़ा और गुस्‍से में कुछ-कुछ बड़बड़ाने लगा। बीरबल ने कहा, महोदय, मैं यह तो नहीं जानता कि आप किस भाषा में और क्‍या बोल रहे हैं पर इतना निश्चित रूप से कह सकता हूं कि यही है आपकी मातृभाषा

साफ़ है...हमारी तत्‍काल प्रतिक्रिया (instant reaction) हमारी अपनी भाषा में ही होती है।आप-हम न जाने कितने ही झगड़ों के चश्‍मदीद रहे होंगे...झगड़े भले ही अंग्रेज़ी के किसी अशोभनीय और तिरस्‍कारपूर्ण शब्‍द से शुरू होते हों लेकिन खिलाड़ी ज़्यादा देर तक अंग्रेज़ी पिच पर नहीं टिक पाते। रगों में जोश-ओ-जुनून का दौरा बढ़ते ही सब हिंदी में वाक् युद्ध पर उतर आते हैं। बड़ी-बड़ी मीटिंग्‍स में भारी-भारी पदनामों वाले भी हिंदी या हिंग्लिश बोल रहे होते हैं। हाई-प्रोफ़ाइल अफ़सर भी इनफॉर्मल होते ही हिंदी में चुटकियां लेने लगते हैं।

कुल मिलाकर मतलब यही कि अधिकांश मामलों में हम चाहकर भी हिंदी में बात करने से कतराते हैं और भाषा को लेकर हमारी यही अप्रोच मुझे ज़रा कम समझ आती है। हम भारतीय हिंदी को फोल्डिंग पलंग की तरह इस्‍तेमाल करते हैं, अनौप‍चारिक माहौल मिलते ही बिछाकर पसर गए और औपचारिक लोगों के सामने पड़ते ही समेटकर कोने लगा दिया और सूट-बूट वाले बाबू साहब बन गए।

खैर, दिन तो सभी के फिरते हैं। खुशी की बात है कि हिंदी के भी फिरते नज़र आने लगे हैं। मोदी जी के आने से कम-से-कम सरकारी महकमों में तो हिंदी में कामकाज बढ़ने लगा है। आला अफ़सर हिंदी में भाषण और प्रजेंटेशन देने की मशक्‍कत करते नज़र आने लगे हैं पर इंतज़ार है तो उस दिन का जब हम हिंदी के प्रति अपना रवैया और सोच बदलेंगे और गुरुवर रवीन्द्रनाथ टैगोर (बांग्‍लाभाषी) की मनोकामना के अनुसार भारत की सब प्रांतीय बोलियांजिनमें सुंदर साहित्‍य की रचना हुई हैअपने-अपने प्रांत में रानी बन कर रहेंगी और आधुनिक भाषाओं के हार की मध्‍यमणि हिंदी भारत भारती होकर विराजेगी।